कविता

मैं ही हूं इस युग का पुरुष महान……

जब कनक की खनक अविरल हो जाए,
जब अपना कद अपनों से उपर हो जाए,
जब अपने से बेहतर ज्ञानी खाख छानते दिख जाएं,
जब अपना अहं अपने ही भीतर संतुष्टि पाए,
जब ज्ञनियों की अकड़ समझ न आए,
जब प्रेमियों की अल्हड़ता समझ न आए,
जब भक्त का समर्पण समझ न आए,
तब समझ लेना कि बन गये हो साक्षात श्री की सवारी तुम।

श्री की महिमा इस धरती पर अपरंपार है।
जिस के सिर पर चड़ बैठी श्री,
कर दिया उसका बेड़ा पार है।
श्री की कृपा ऐसी की हर पल पुष्टि पता अहंकार है।

अहंकार की मैं हूं औरो से श्रेष्ठ,
अहंकार की मेरे कदमों में है सृष्टि की हर कीमती भेंट,
अहंकार कि मैं ही हूं विश्व विजेता,
अहंकार कि मैनें ही हर युद्ध को जीता,
अहांकर कि मैं ही हूं इस युग का पुरुष महान,
अहंकार की मेरे समक्ष है सृष्टि की है शै नादान।

अहंकार कि मुझसे होती नही गलतियां।
मैं ही दे कर जाऊंगा आने वाली पीढ़ी को एक युग निर्माण।
मेरी ही जय गाथा गाएंगे वो।
खोजेंगे मेरे ही पथ पर निर्वाण।

आखें खोलो, रे मानव!
अब देखो तुम कल चक्र का अजब खेल।
घूम जाती है धरती चार प्रहर में,
बह जाते है प्रबल प्रभुत्व भी काल चक्र के इस लहर में।

बह जाने दो…
लहरों को ललकारने दो..
मत दो अपना ज्ञान उन्हें।
करने दो अपने युग का निर्माण उन्हें।

जल जाओगे,
हमने जल कर देखा है।
ज्यादा उड़ो मत,
मिलता वही है जो हाथों की रेखा है।

मत खीचों उन्हे अपने मिथ्या तथ्य से।
आंखें मिलाने दो उन्हे वर्तमान के सत्य से।

प्रवचन नहीं अवलम्बन दो।
आश्रय नहीं स्वावलम्बन दो।
सीचों उन्हे, मत अपनी छाओं दो।
उड़ने दो, बहने दो,
वक्त की बाहों में बाहें डालकर
उन्हे जीने दो।

अंशुल श्रीवास्तव

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