कविता

बिखरे है जमी पर कुछ सूखे पत्ते….

बिखरे है जमी पर कुछ सूखे पत्ते
जो थे अभी कुछ सूखे कुछ मटमैले
जिन्हें देख कहते थे कभी
नई कोपले आई
गिरते है आज वही पेड़ो से
बन पतझड़ की गवाही
खेला था जिनकी छांव में कभी बचपन
छीन रही छांव सूखे पत्ते बन
जो देते थे कभी
इतिहास की गवाही
बिखरे पड़े हैं आज
सुनता न कोई दुहाई
सहेज लो हर सूखे पत्ते
जुड़ी है जिंदगी जिनसे
पेड़ो से टूट गए जो पतझड़ में
हो जायेंगे हरे वसंत में
मुरझा गए जो जीवन में
ना खिलेंगे फिर कभी किसी मौसम में
समेट लो हर सुखा पत्ता
क्यों की सूखे पत्तों से ही इतिहास बनता।

  -मंजरी तिवारी

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