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कारगिल विजय दिवस पर CM योगी का ऐलान- हर कमिश्नरी में खुलेंगे सेना के स्कूल, 5 शहीदों के परिवार हुए सम्मानित

लखनऊ| कारगिल विजय दिवस पर आज पूरा देश जवानों के शौर्य और पराक्रम को याद कर रहा है। इसी कड़ी में सोमवार को लखनऊ में कारगिल वाटिका में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 5 शहीदों के परिजनों को सम्मानित किया। इस मौके पर सीएम ने कहा कि सैनिकों की बदौलत देश की 125 करोड़ की आबादी खुद को सुरक्षित महसूस करती है। शहीदों के परिवार खुद को कभी अकेला महसूस न करे।

उन्होंने कहा कि हर कमिश्नरी पर एक सैनिक स्कूल सरकार खोलेगी। जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग सेना में जाएं। उत्तर प्रदेश में अभी 4 सैनिक स्कूल चल रहे हैं। पांचवें पर काम चल रहा है। प्रदेश के हर शहीद के परिवार को 50 लाख रुपए, एक को नौकरी, उनके नाम पर सड़क और एक स्मारक बनाने की पहल सरकार कर रही है। 22 साल पहले आज ही दिन सेना ने कारगिल को फतह कर पूरे देश को गर्व महसूस कराया था। हम उनको नमन करते हैं।

शहीद कैप्टन मनोज पांडेय

परमवीर चक्र सम्मानित कैप्टन मनोज पांडेय का जन्म सीतापुर जिले के रूढ़ा गांव में हुआ था। इंटरमीडिएट तक की शिक्षा लखनऊ से ली। उसके बाद पूना के खडगवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में तीन साल तक सैन्य शिक्षा ली। 6 जून 1997 में उन्हें सेवा में कमीशन प्राप्त हुआ।

सबसे पहले 11 वीं राइफल कपंनी में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति हुई और पहली ही तैनाती कश्मीर में हुई। अपनी पहली ही तैनाती में मनोज पांडेय ने तीन आतंकवादियों को मार गिराया था। उसके बाद 1999 के कारगिल युद्ध में सबसे पहले लेह की सड़क को घुसपैठियों से मुक्त कराया। उसके बाद खालुबार चोटी पर कब्जा दिए जाने के विजय अभियान के दौरान अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुए 3 जुलाई 1999 को यह शहीद हुए।

कैप्टन आदित्य मिश्रा

24 दिसंबर 1974 को लखनऊ के फातिमा अस्पताल में जन्मे शहीद कैप्टन आदित्य मिश्र की प्रारंभिक शिक्षा शहर के कैथड्रल स्कूल से हुई। उनके पिता गिरजाशंकर भी सेना में मेजर जनरल रहे हैं। 8 जून 1996 को सेना के सिग्नल कोर में सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में कैप्टन आदित्य मिश्र भर्ती हुए थे। उसके बाद सितंबर 1999 में उन्हें लद्दाख स्काउट में तैनाती मिली। इसके बाद जब कारगिल युद्ध छिड़ा तो वह बटालिक पहुंचे, जहां 17 हजार फीट ऊंची चोटी पर भारतीय पोस्ट को छुड़ाने के लिए उन्होंने दुश्मनों पर हमला कर दिया।

साथ में राइफलमैन सुनील जंग और लांसनायक केवलानंद द्विवेदी ने ऊंची पहाड़ियों पर कोहनी के बल चढ़ाई की, जहां सांस लेना भी मुश्किल था। दुश्मनों का खात्मा कर चोटी पर फतह हासिल कर ली। पोस्ट पर कम्युनिकेशन के लिए तार बिछाने बहुत जरूरी थे, इसलिए वह पोस्ट से नीचे उतर आए। जब दोबारा पोस्ट पर आए तो दुश्मन फिर से काबिज हो चुके थे। यहां गोलीबारी में वह घायल हो गए। हालांकि पोस्ट को दुश्मनों से खाली करवाया। सिग्नलिंग तार बिछाने के बाद वीरगति को प्राप्त हुए।

मेजर रितेश शर्मा

मेजर रितेश शर्मा की प्रारंभिक शिक्षा उप्र के बदांयू में हुई। सेना में उनकी भर्ती 1995 में हुई, जहां उनको 17 जाट रेजीमेंट के तहत उनकी उनकी पहली पोस्टिंग श्रीगंगा नगर राजस्थान में हुई। वह मई, 1999 में 15 दिनों की छुट्टी लेकर लखनऊ अपने घर आए थे। तभी युद्ध की सूचना मिली। इससे पहले कि रेजीमेंट उन्हें बुलाती, वह बगैर बुलाए ही ड्यूटी पर पहुंच गए। मेजर रीतेश ने यूनिट के साथ दुश्मनों से मोर्चा लेते हुए चोटी पर तिरंगा फहरा दिया था।

मश्कोह घाटी जीतते हुए वह घायल हो गए। उन्हें बेस कैम्प में लाया गया और कमान कैप्टन अनुज नैयर को सौंप दी गई, जो कारगिल में शहीद हो गए। मश्कोह घाटी में तिरंगा फहराने के कारण ही 17 जाट रेजीमेंट को मश्कोह सेवियर का खिताब भी दिया गया। कारगिल की लड़ाई के बाद के बाद 25 सितंबर, 1999 को कुपवाड़ा में आतंकी ऑपरेशन के दौरान मेजर शर्मा खाई में गिर गए थे, जिसके बाद अस्पताल में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया था।

राइफल मैन सुनील जंग

बचपन में ही सेना में जाने का मन बनाने वाले सुनील जंग महज 16 साल की उम्र में सेना में भर्ती हो गए थे। कारगिल की लड़ाई में लखनऊ से कई लोग शहीद हुए। लेकिन जांबाजों में सुनील जंग सबसे कम उम्र का जवान थे। सुनील जंग इंफेंट्री गोरखा राइफल्स का जवान थे। सुनील के पिता और दादा भी फौज में थे। मां बीना महत ने सुनील को फौजी ड्रेस दिलाई। राइफलमैन सुनील जंग को 10 मई 1999 को उसकी 1/11 गोरखा राइफल्स की एक टुकड़ी के साथ कारगिल सेक्टर पहुंचने के आदेश हुए।

लड़ाई में तीन दिनों तक राइफलमैन सुनील जंग दुश्मनों का डटकर मुकाबला करते रहे। 15 मई को एक भीषण गोलीबारी में कुछ गोलियां उनके सीने में जा लगीं। लेकिन वह लगातार दुश्मनों पर प्रहार करते रहे। दुश्मन की एक गोली सुनील के चेहरे पर लगी और सिर के पिछले हिस्से से बाहर निकल गई। शहीद होने से पहले सुनील जंग से दुश्मन पर एक-एक कर 25 बम फोड़े थे।

जवान केवलानंद द्विवेदी

9 साल की नौकरी में महज चार बार अपने घर आने वाले केवलानंद द्विवेदी को देश प्रेम विरासत में मिली थी। वह अपनी बीमार पत्नी को छोड़ की सेना में गए थे। बीमार पत्नी ने उनका हौसला बढ़ाते हुए कहा था कि सरहदों को आपकी ज्यादा जरूरत है। केवलानंद द्विवेदी का जन्म 12 जून 1968 को पिथौरागढ़ में हुआ। कारगिल की लड़ाई में दुश्मनों के छक्के छुड़ाते हुए आगे बढ़ रहे थे कि एक गोली उनके सीने में धंस गई। हालांकि वह आगे बढ़ते रहे। उन्होंने दुश्मनों का सामना किया और शहीद हो गए।

6 जून, 1999 को उनकी शहादत की खबर परिवार को मिली। शहीद लांसनायक केवलानंद की शादी 1990 में हुई थी। उस वक्त वह 22 साल के थे और उनकी पत्नी कमला द्विवेदी सिर्फ बीस साल की। 30 मई, 1999 की सुबह उन्होंने आखिरी बार अपनी पत्नी से फोन पर बात की थी। वह डर गई थीं। पर, दूसरी ओर से आवाज सुनते ही उनका हौसला बंधा। लांसनायक ने कहा था कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा से पीछे नहीं हटूंगा। तुम दोनों बेटों और अपना ख्याल रखना।

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