शूद्र हूं मैं।
शूद्र नहीं सवर्ण हूं मैं।
एक पल के लिए लगा शूद्र हूं मैं।
लगा जैसे समाज मुझे कुचलने के लिए तैयार बैठा है।
पर मैनें हार ना मानी,
वक्त को बदलने की मैने भी ठानी।
मेरी खुशियां अभी कर्ज है वक्त पर।
देखूंगी मैं भी कैसे करता है वक्त बेईमानी।
कमजोर से परिभाषित है शूद्र।
सदियों से ही शोषित है शूद्र।
सम्वेदनहीन समाज में जो सम्वेदनशील है वही है शूद्र।
कण कण क्षण क्षण झरता है।
फिर भी सेवा करता है।
बिना सम्बल के कितना सबल।
श्रम शक्ती उसकी महा प्रबल।
मैं हूं शूद्र। मैं हूं शूद्र।
अंशुल श्रीवास्तव